1. मेरी विनती
- प्रणाम / नमस्ते – शान्ता शमाा
कविता-िर्ाा में अब तक रहे तर,
चखते रहे ममठास-ही-ममठास (कविता-रस) भर,
मैं दे रही अब ज़रा अदरक का काढा,
न हो जाए कही अपच लगता है ड़र,
कहीीं अस्िस्थ न हो जाए पान से अतत रस |
अब सुतनए, मैं के िल कान दे सकती हूँ, कवियों को
दान न कर सकती – मेरा योग
दान न कर सकती कविता-जग को
उसे जान न दे सकती – वििश हूँ |
फिर भी मुझे मान है, बहुत
अमभमान है, जी हाूँ !
कवियों की रचनाओीं पर
ध्यान दे सकती ज़रूर |
रच देना सरल है, पर
रस लेना, है अतत कठठन काम
मैं के िल कान दे सकती
कवि-कु ल-रवि तान को
आप लोगों से है मेरी एक विनती –
कृ पया न तोलें मेरे शब्दों को
मुझे ड़र है – कहीीं मेरा
पलड़ा न रह जाए
भतल पर ठिककर |
(जी ! कल्पना है यह कोरी
न मातनएगा कृ पया आत्मप्रशींसा मेरी)